Thursday, September 8, 2011

तुझे ख़ामोशी ही अख्तियार करनी होगी ऐ जमां...


वो गुनाह करते गए अपनी आजाद ख्याली में... 
गुनाहों को जायज़ कहते गए दोस्ती की आड़ में...

हर जुर्म को बस यू कहा की ये तो सिर्फ दिल्लगी थी...
खूने जिगर भी करते गए दिल्लगी की आड़ में...

खूने जिगर पर  भी दर्दे  दिल को चीखने न दिया...
रास न आया उन्हें दिल के जज़्बात का ज़ाहिर करना...

तुझे ख़ामोशी ही अख्तियार करनी होगी ऐ जमां...
वरना आह भरने के जुर्म में फिर सजा होगी...

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